Thursday 2 August 2018

मेरी ज़िन्दगी

दर्द काग़ज़ पर मेरा बिकता रहा,
मैं बेचैन था,
रात भर लिखता रहा।
छूँ रहे थै सब बुलंदिया आसमान की
मैं सितारों के बीच,

चाँद की तरह छिपता रहा।

अकड़ होती,

तो कब का टूट गया होता मैं,
मैं था नाज़ुक डाली,
जो सबके आगे झुकता रहा।
बदले इनही लोगों ने,
रंग अपने अपने ढंग से,
रंग मेरा भी निखरा पर,
मैं मेहंदी की तरह पिसता रहा।
जिनको जल्दी थी,
वो बढ़ चलें मंज़िल की ओर,
मैं किनारा हुआ करता था कभी,
समंदर ने है मुझे पी लिया।

मैं समंदर के राज़ गहराई मे छुपाता रहा।

ज़िंदगी कभी भी ले सकती है करवट,

तू गुमान ना कर।

बुलंदिया छूँ हज़ार,

मगर उसके लिये कोई गुनहा ना कर।
बेतुके झगड़े,
कुछ इस तरह ख़त्म कर दिया मैंने।

जहाँ ग़लती नहीं भी थी मेरी,

वहाँ भी हाथ जोड़ माफ़िया माँग लिया मैंने।

3 comments:

Shatabdi Mitra said...

Wonderful 👌

Unknown said...

Good one you become a writer??

TROUBLESEEKER said...

Yeah I am trying to become a writer.

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