Sunday 7 October 2018

ख़त

जब तुम्हारी तस्वीर देखता हु। 
तो कुछ इच्छाएं उठीती है मन मे।  
की तुम अगर इतनी दूर न होकर। 
मेरे करीब होती तो।
इन चिट्ठियों में तुम्हारी खुसबू न ढूंढ़ता होता। 
जो पिछले महीने की चिट्ठी जिसमे। 
मेरा नाम तुम्हारे एक आंसू की बूँद ने मिटा दिया था। 
संभाले रखीं है मैंने। 
काश के हमारे बीच इतनी दूरी न होती। 
तो  तुम्हे रोज़ गुदगुदी करके रुलाता। 
और तुम्हारे रूठ हो जाने पे पागलो सी हरकते करके मनाता। 
तुम्हे सुलाता अपनी बांहों में भरके। 
और सर्द सुबह मे अदरक के चाय की गरम। 
प्याली ला कर के जगाता। 
उन्ही सर्द रातों में तुम्हे ओढ़ता और तुम्हे ही बिछाते हुए। 
खुद तुम्हारे अघोष में सो पता। 
तुम्हारी हर अदा और नखरे को। 
अपनी कविताओं में कैद कर पाता। 
तो शायद यह पहाड़ सी ज़िन्दगी। 
आराम से कट पाती। 
पर हकीकत तो यह है। 
की तुम वहा हो और। 
मैं अपनी मजबूरियों के बोझ तले। 
दबा हुआ यहाँ हू। 
तुमसे बहुत दूर। 
यह कुछ इच्छाएं है मेरी जो इस खत में लिख भेज रहा हु। 
इसी वादे के साथ के गर इस ओर न पूरी हुयी यह। 
तो उस ओर पूरी ज़रूर करूँगा। 
मैं तुम्हारा था और तुम्हारा ही मरूंगा।

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